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नाटापन के अभिशाप से लखीसराय जिले के 8% से अधिक बच्चों को मिली निज़ात
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- Dec 27, 2020
- 2368 views
• पांच सालों में नाटापन घटकर 42.7% हुआ
• कुपोषण बढ़ाने में नाटापन की होती है अहम भूमिका
• सरकार की कई पोषण कार्यक्रमों का बेहतर क्रियान्वयन बना सहायक
लखीसराय 26, दिसम्बर : कुपोषण सिर्फ शारीरिक या मानसिक रूप से बच्चों को कमजोर नहीं करता, बल्कि इससे देश का विकास भी बाधित होता है. लेकिन कोरोना जैसे महामारी के दौर में बिहार में बच्चों के सुपोषण में बढ़ोतरी की खबर राहत पहुंचा रही है. हाल में जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार विगत पांच सालों में राज्य में नाटापन( उम्र के हिसाब से लम्बाई का कम होना) में 5.4% की कमी दर्ज हुयी है, जबकि लखीसराय जिले 8% की कमी हुई है। जो यह दर्शाती है कि सरकार की पोषण संबंधी योजनाओं का समुदाय स्तर तक बेहतर क्रियान्वयन हुआ है. यह आंकड़े इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि पिछले सर्वेक्षण( 2015-16) में बिहार में 48.3% बच्चे नाटापन से ग्रसित थे, जो अब राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (वर्ष 2019-20) के अनुसार घटकर 42.9% हुयी है. जबकि लखीसराय जिले में एनएफएचएस 4 (2015- 16) के आंकड़ों के अनुसार जिले में 50.6 प्रतिशत बच्चे नाटापन के शिकार थे जो अब एनएफएचएस 5 (2019-20) के आंकड़ों के अनुसार घटकर मात्र 42.7 प्रतिशत रह गया है।
जिले में बच्चों में पोषण की कमी से निपटने के लिए की गई पोषण केंद्र की स्थापना :
आईसीडीएस के जिला कार्यक्रम पदाधिकारी कुमारी अनुपमा ने बताया कि शत-प्रतिशत बच्चों में पोषण की समस्या दूर हो। इसके लिए हमलोगों पूरी तरह प्रयासरत हैं। साथ ही जिले में भी बच्चों में पोषण की कमी से निपटने के लिए पोषण पुनर्वास केंद्र की स्थापना की गई है। उन्होंने बताया कि कुपोषण की समस्या से जूझ रहे बच्चों को 14 दिनों के लिए पोषण पुनर्वास केंद्र में रखा जाता है।
नाटापन में आ रही लगातार कमी:
बच्चों में नाटापन अपरिवर्तनीय होता है. इसका मतलब है कि यदि बच्चे एक बार नाटापन के शिकार हुए तो उन्हें पुनः ठीक नहीं किया जा सकता है. इस लिहाज से इसमें कमी लाना काफी जरुरी है. इस दिशा में नाटापन में पिछले 15 सालों में बिहार में निरंतर कमी आयी है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 (वर्ष 2005-06) में बिहार में 55.6% बच्चे नाटापन के शिकार थे, जो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4(वर्ष 2015-16) में घटकर 48.3% हो गयी थी.
बच्चों में नाटापन होने के बाद इसे पुनः सुधार करने की गुंजाइश कम हो जाती है एवं यह बच्चों में कुपोषण की सबसे बड़ी वजह भी बनती है. इस लिहाज से नाटापन में आई कमी सुपोषित बिहार की राह आसान करने में प्रमुख भूमिका अदा करेगी. अपर्याप्त पोषण एवं नियमित संक्रमण जैसे अन्य कारकों के कारण होने वाला नाटापन बच्चों में शारीरिक एवं बौद्धिक विकास को अवरुद्ध करता है जो स्वस्थ भारत के सपने के साकार करने में सबसे बड़ा बाधक भी है.
बच्चों एवं महिलाओं के पोषण में आई सुधार:
आईसीडीएस निदेशक आलोक कुमार ने कहा कि राज्यत में बच्चों एवं महिलाओं के पोषण स्त1र में अपेक्षित सुधार लाने हेतु आई.सी.डी.एस. के माध्ययम से कई योजनाएँ क्रियान्वित की जा रही है। जिसका अनुश्रवण एवं मूल्यांुकन विभिन्न स्तरों ICDS-CAS, आँगन-एप, RRS के माध्येम से किया जाता रहा है। जिसके फलस्वारूप स्वा्स्था एवं पोषण के कुछ संकेतकों में सुधार है। आगे भी हमें निरन्तपर इस दिशा में प्रयास करने की जरूरत है।
अन्य स्वास्थ्य एवं पोषण सूचकांकों में भी सुधार:
बिहार में पांच सालों में पोषण एवं स्वास्थ्य के कुछ विशेष सूचकांकों में आयी कमी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार विगत पांच सालों में बिहार में 6 माह तक केवल स्तनपान, संस्थागत प्रसव, महिला सशक्तीकरण, संपूरक आहार( 6 माह के बाद स्तनपान के साथ ठोस आहार की शुरुआत), कुल प्रजनन दर में कमी, 4 प्रसव पूर्व जाँच एवं टीकाकरण जैसे सूचकांकों में सुधार हुआ है। ये सूचकांक कहीं न कहीं नाटापन में कमी लाने में सहायक भी साबित हुए हैं। वहीं मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना, समेकित बाल विकास सेवा सुदृढ़ीकरण एवं पोषण सुधार योजना (आई एस एस एन पी), पोषण अभियान एवं ओडीएफ़ जैसे कार्यक्रमों का बेहतर क्रियान्वयन भी नाटापन में सुधार लाने में सकारात्मक प्रभाव डाला है.
नाटापन बच्चों के शारीरिक एवं बौद्धिक विकास में भी बाधक:
उम्र के हिसाब से लंबाई कम होना ही नाटापन कहलाता है। गर्भावस्था से लेकर शिशु के 2 वर्ष तक की अवधि यानी 1000 दिन बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास की आधारशिला तैयार करती है. इस दौरान माता एवं शिशु का स्वास्थ्य एवं पोषण काफी मायने रखता है। इस अवधि में माता एवं शिशु का खराब पोषण एवं नियमित अंतराल पर संक्रमण नाटापन की सम्भावना को बढ़ा देता है। नाटापन होने से बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध होता है. साथ ही नाटापन से ग्रसित बच्चे सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक बीमार पड़ते हैं, उनका आई-क्यू स्तर कम जाता है एवं भविष्य में आम बच्चों की तुलना में वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ भी जाते हैं।
सामुदायिक जागरूकता भी जरुरी :
कुपोषण में कमी लाने के लिए सरकारी योजनाओं के साथ समुदाय की भागीदारी भी जरुरी है. ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बच्चे के बेहतर स्वास्थ्य एवं पोषण को लेकर माताओं की सक्रियता अधिक है। अभी भी पुरुष अपने बच्चे के पोषण को लेकर गंभीर नहीं है। गर्भवती महिला का स्वास्थ्य एवं पोषण, बच्चों का स्तनपान एवं संपूरक आहार जैसे बुनियादी फैसलों में पुरुषों की सहभागिता होने से कुपोषण के दंश से बच्चों को बचाया जा सकता है।
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